अजय भट्टाचार्य/वरिष्ठ पत्रकार
मुंबई। नये कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर किसान आन्दोलन थमा नहीं है। गणतंत्र दिवस पर किसान संगठनों द्वारा दिल्ली की सडकों पर आयोजित ट्रैक्टर मार्च की आड़ में लाल किले में खेले गये सियासी खेल की भी धीरे-धीरे परतें उधड रही हैं। सत्ता प्रतिष्ठान और उससे जुड़े हुए संगठन इस मुद्दे को राष्ट्रध्वज का अपमान निरुपित कर किसान आंदोलन को कुचलने की भूमिका तैयार करने में जुटे और 28 जनवरी को ऐसा लगा कि दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों को खदेड़ने की तैयारी है। किसानों की पिटते-भागते देखने-दिखाने की खूनी प्यास में गोदी मीडिया के लड़ाके एंकर-एंकरनियाँ मोर्चे पर लाइव दिखाने को तैयार थे। दूसरी तरफ छद्म देशभक्ति के चितेरे तिरंगे की आड़ में किसानों पर हमला करने को तैयार थे। तब किसान नेता राकेश टिकैत की प्रेस कांफ्रेंस हुई जिसका लाइव प्रसारण हुआ। सत्ता के नशे में धुत गुंडे किसानों को देशद्रोही करार देकर हमले कर रहे थे और किसान नेता का दर्द आंसू बनकर बहने लगा। ये आंसू जब किसानों ने देखे तब मंजर बदलने लगा।


किसान वापस आने लगे। नजारा बदलते ही मीडिया के शिकारी भी खिसकने लगे और पुलिस व अन्य सुरक्षा बल भी वापस हो गये। मगर तिरंगे का अपमान अभियान अभी भी इस उम्मीद में है कि किसान गद्दार है।
इसलिए तिरंगे को लेकर जिस राष्ट्रभक्ति की भावना को उभारने की कोशिश सत्ता प्रतिष्ठान कर रहा है उसे नागपुर केस नंबर 176 की याद दिलाने की जरूरत है। जब प्रधानसेवक मन की बात में यह कहते हैं कि तिरंगे के अपमान से देश आहत है तब नागपुर केस नंबर 176 पर ध्यान अपने आप चला जाता है। क्योंकि जब राष्ट्रध्वज को ही राष्ट्रभक्ति का पैमाना बनाया गया है तो क्यों न हम सब उस पर खड़े होकर अपनी-अपनी देशभक्ति माप लें? अगस्त 2013 को नागपुर की एक निचली अदालत ने वर्ष 2001 के एक मामले में दोषी तीन आरोपियों को बाइज्जत बरी कर दिया था। इन तीनों आरोपियों बाबा मेंढे, रमेश कलम्बे और दिलीप चटवानी का जुर्म तथाकथित रूप से सिर्फ इतना था कि वे 26 जनवरी 2001 को नागपुर के रेशमीबाग स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक मुख्यालय में घुसकर गणतंत्र दिवस पर तिरंगा झंडा फहराने के प्रयास में शामिल थे। राष्ट्रप्रेमी युवा दल के यह तीनों सदस्य दरअसल इस बात से क्षुब्ध थे कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे अवसरों पर भी संघ के दफ्तरों में कभी तिरंगा नहीं फहराया जाता। सवाल यह है कि जिस भवन पर यह युवक तिरंगा फहराना चाहते थे वह कोई मदरसा नहीं था। वह संघ का राष्ट्रीय मुख्यालय था जिसकी देशभक्ति पर आज कोई भी सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता। तब फिर क्या वजह थी कि संघ इस कोशिश पर इतना तिलमिला गया कि तीनों युवकों पर मुकदमा दर्ज हो गया और 12 साल तक ये लड़के संघ के निशाने पर बने रहे। यह भी पूछना लाजमी है कि नागपुर की अदालत में यह मुकदमा दर्ज होने के बाद 2002 में संघ मुख्यालय पर तिरंगा झंडा फहराने का निश्चय क्यों किया गया? क्या इसलिए कि संघ यह समझ गया था कि इस मुकदमे का हवाला देकर उसकी देश के प्रति निष्ठा पर सवाल खड़े किये जायेंगे? या इसलिए कि भगवा झंडे के बजाय तिरंगे से जुड़ी जनभावनाओं का सहारा लेकर उसे अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाना आसान लगने लगा था? यह कोई आज की बात नहीं है, तिरंगे से भाजपा के पितृसंगठन का द्वेष 90 साल पुराना है। जब आज़ादी की लड़ाई के दौरान 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया तो संघचालक डॉ. हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी कर तमाम शाखाओं पर भगवा झंडा पूजने का निर्देश दिया। आजादी की पूर्वसंध्या पर संघ ने अपने अंग्रेजी पत्र आर्गेनाइजर में 14 अगस्त 1947 वाले अंक में लिखाः
“वे लोग जो किस्मत के दाव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आँकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेय होगा।”
आज हिंदू-हिंदुत्व के बाद जिस तिरंगे को राष्ट्रभक्ति के हथियार के रूप में किसानों और किसान संगठनों के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है उस पर भी सत्ता प्रतिष्ठान पर काबिज भारतीय जनता पार्टी को तब कोई अपमान महसूस नहीं होता जब 15 अगस्त को कौशांबी में भाजपा कार्यालय पर तिरंगे से ऊपर भाजपा का झंडा फहराया जाता है। तब भी भाजपा को अपमान या अपराध बोध नहीं होता जन 17 नवंबर 2017 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की गाज़ियाबाद यात्रा के दरम्यान जवाहर गेट घंटाघर के शिखर पर तिरंगे के ऊपर भाजपा का झंडा फहरा दिया जाता है। फिर इस विषय पर न तो भाजपा कुछ बोल रही है, न पुलिस कि लालकिले का हुडदंगी दीप सिद्धू आखिर इतनी आसानी से लालकिला पहुँच कैसे गया? षड्यंत्र दुश्मन के खिलाफ हो तो मान भी लिया जाये, यहाँ तो हर वह नागरिक दुश्मन माना जा रहा है जो सत्ता के खिलाफ असहमति की आवाज बनता है। पूरा अमला टिकैत को डकैत कहने में मुदित है। तो क्या वर्तमान रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह भी डकैत हैं जो कुछ साल पहले इसी तरह के किसान आन्दोलन में टिकैत की शान में कशीदे पढ़ रहे थे? और उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ टिकैत के साथ गलबहियाँ कर रहे थे। मुझे चार-पांच साल पहले योगदिवस पर तिरंगे दुपट्टे से चेहरा पोंछते प्रधानसेवक से इसलिए कोई शिकायत नहीं है क्योंकि उस तिरंगे दुपट्टे में अशोक चक्र नहीं था।
(लेखक देश के जानेमाने पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। दोपहर का सामना के नियमित स्तंभ लेखक हैं)