अजय भट्टाचार्य
इन दिनों उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनावों के चलते राजनीतिक गतिविधियाँ उफान पर हैं और अधिकांश दलों कि नजर पूर्वांचल पर है। इस माह भाजपा के शीर्ष नेता व देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भो पूर्वांचल की सतत प्रदक्षिणा कर रहे हैं। पूर्वांचल एक्सप्रेसवे से शुरू यह परिक्रमा सरयू नहर परियोजना, श्री विश्वनाथ कोरिडोर और आगामी 23 दिसम्बर को जैविक खेती पर व्याख्यान आदि के कार्यक्रमों में मोदी की उपस्थिति पूर्वांचल फतह की कोशिश का ही अंग है। अगर देश की राजनीति का रास्ता उत्तर प्रदेश से जाता है तो सूबे की राजनीति का निर्धारण पूर्वांचल करता है। अब तक के इतिहास यही बताता है कि पूर्वांचल जब भी जिस राजनीतिक दल पर मेहरबान हुआ सूबे की सत्ता की बागडोर उसे ही मिली। सूबे की कुल विधानसभा सीटों में करीब 40 फीसदी सीटें पूर्वांचल में हैं। 162 विधानसभा क्षेत्रों को समेटे पूर्वांचल किसी समय पूर्वांचल कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। लेकिन 1989 के बाद कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई और बसपा-सपा ने पूर्वांचल में अपनी जीत दर्ज कर सरकार बनाई। 2014 के लोकसभा चुनावों से इस क्षेत्र में भाजपा का दबदबा बढ़ा जिसका नतीजा यह हुआ कि 2017 के विधानसभा चुनाव आते-आते करीब तीन चौथाई विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा को बंपर जीत मिली। यह पूर्वांचल में भाजपा का सबसे श्रेष्ठ प्रदर्शन था। दूसरे शब्दों में कहें तो 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के जादू पर पूर्वांचल ने भरोसा जताया और आजमगढ़ की सीट छोड़कर सभी लोकसभा की सीटें बीजेपी की झोली में गई। यह जादू2017 में भी बरक़रार रहा। जब समाजवादी पार्टी 17 और बसपा 14 सीटों पर सिमट गई। और सरल शब्दों में कहें तो भाजपा को मिली कुल सीटों में पूर्वांचल में मिली सीटों का हिस्सा एक तिहाई से भी ज्यादा था।
जबकि इससे ठीक पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को 102 सीटें मिलीं थीं और सपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता तक पहुंची थी। तब भाजपा को पूर्वांचल में केवल 17 सीटें ही मिली थीं। संयोग देखिये कि 2017 में सपा 17 सीटें ही जीत सकी। इससे पहले 2007 में ब्राह्मण-दलित कार्ड खेलकर बसपा पूर्वांचल की 85 सीटें जीतकर उप्र की सत्ता पर अपने बूते पहुंची थी जो 2012 में सिर्फ 22 सीटों पर ही निपट गई। जातीय समीकरण में उलझी पूर्वांचल की राजनीति कभी भी किसी की खास नहीं रही। इसलिये भाजपा ने पश्चिम में किसान आन्दोलन के चलते खिसकी जमीन की भरपाई पूर्वांचल से ही करने की रणनीति बनाई है ताकि पिछला प्रदर्शन दोहराया जा सके। यही कारण है कि पूर्वांचल में विकास योजनाओं की बरसात हो रही है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, पूर्वांचल एक्सप्रेसवे, कुशीनगर एयरपोर्ट, गोरखपुर एम्स, खाद कारखाना, विश्वनाथ कॉरिडोर का लोकार्पण पूर्वांचल को रिझाने के ही प्रकल्प हैं।
समाजवादी पार्टी भी पूर्वांचल पर अपनी पकड़ वापस पाने के लिए तमाम क्षेत्रीय पार्टी दलों का जखीरा अपने साथ इकठ्ठा कर रही है जिसमें सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर और कृष्णा पटेल की अगुवाई वाले अपना दल के साथ गठबंधन शामिल है। पूर्वांचल की तकरीबन 40 सीटों पर राजभर मतदाता निर्णायक साबित हो सकते हैं। इसके अलावा बाहुबली बाहुबली मुख़्तार अंसारी परिवार को भी अखिलेश ने साथ लिया है। पूर्वांचल के कद्दावर ब्राह्मण नेता हरिशंकर तिवारी का परिवार भी जल्द ही सपा में शामिल होने वाला है। इन सबके बीच कांग्रेस भी अपनी जमीन तलाश रही है और सोनभद्र से लेकर इलाहाबाद तक हुए दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर मुखर रही है। ब्राह्मण, पिछड़ा वर्ग और मुसलमानों के बीच भी जिस तरह कांग्रेस की प्रभारी प्रियंका पैठ बना रही हैं उससे भले कांग्रेस सरकार बनाने योग्य सीटें न जीत पाए, मगर राज्य में मृतप्राय पड़ी पार्टी फिर से खड़ी हो सके, इसनी सीटें पाने की उसकी जद्दोजहद जारी है।
(लेखक देश के जाने माने पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं।)