अजय भट्टाचार्य
बीते मंगलवार से महाराष्ट्र की राजनीति में उठा भूचाल अभी तक थमा नहीं है। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना के 38 विधायक कथित रूप से बागी हो चुके हैं। जबकि शिवसेना की ओर से यह दावा किया जा रहा है कि इसका फैसला तो विधानसभा में होगा। यही वह विन्दु है जहाँ बागियों की रणनीति फंसी हुई नजर आती है। सवाल यह है कि अगर बागी गुट में दो तिहाई शिवसेना विधायक हैं तो अब तक तो खेल हो जाना चाहिये था। घटनाक्रम पर नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बागियों के नेता एकनाथ शिंदे अब भी आश्वस्त नहीं हैं कि सदन में वे अपने गुट की संख्या बरकरार रख सकें। यही डर बागी नेता को मुंबई/महाराष्ट्र वापसी से रोक रहा है। दूसरा इस पूरे खेल में पर्दे के पीछे से चालें चल रही कथित राजनीतिक “महाशक्ति” भी जब तक आश्वस्त नहीं होती की बागी धड़े में पर्याप्त संख्याबल है, तब तक वह “महाशक्ति” अपना नकाब नहीं उतारेगी। अलबत्ता खबरें है कि शुक्रवार रात अचानक ही एकनाथ शिंदे ने गुजरात पहुंचकर देवेंद्र फड़नवीस से मुलाकात की थी। मरम्मत के लिए रात को बंद रहने वाला इंदौर एयरपोर्ट उस रात में खुला रखा गया था। जहाँ से फ्लाइट बदलकर फड़नवीस बडौदा पहुंचे और वहीं शिंदे से मुलाकात हुई थी। यह मुलाकात क्यों और किस रणनीति का हिस्सा थी यह अभी गुप्त है मगर अभी तक न तो बागी गुट और न भाजपा ने वर्तमान उद्धव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव जैसा एजेंडा आगे बढ़ाया है। शिंदे खेमा लगातार खुद को शिवसेना से संबद्ध ही बता रहा है। मतलब साफ है हाथी के दिखाने और खाने वाले दांतों वाली स्थिति है। शिंदे खेम जो दिखा रहा है, वास्तविकता उससे उलट भी हो सकती है। विधायी कार्यों के जानकार और महाराष्ट्र विधानसभा के पूर्व मुख्य सचिव डॉक्टर अनंत कलसे की मानें तो शिंदे गुट के पास राज्यपाल को चिट्ठी लिख सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव देकर विधानसभा में बहुमत साबित करने का मौका है। लेकिन इसमें बड़ा फच्चर यह है कि दलबदल कानून के अनुसूचक 10 के मुताबिक बागी गुट को उसके लिए भी किसी एक दल में विलय करना होगा। अगर भाजपा में विलय करते हैं तो उनका अस्तित्व खत्म होने का खतरा है। तो क्या शिंदे अपने साथ गुवाहाटी के होटल में मौजूद विधायक बच्चू कडू की प्रहार जनशक्ति पार्टी में विलय करेंगे? प्रहार जनशक्ति पार्टी के दोनों विधायक इस समय शिंदे गुट के साथ हैं। दोनों ही परिस्थितियों में शिंदे का शिवसेना और बाला साहब ठाकरे का शिवसैनिक होने का दावा खुद ख़ारिज हो जायेगा/जाता है। कुछ चैनलिया चतुर ‘सूत्रों’ के हवाले से यह साबित करने में ऊर्जा खत्म कर रहे हैं कि चूँकि विधानसभा अध्यक्ष का पद खाली है लिहाजा मौजूदा विधानसभा उपाध्यक्ष नरहरि ज़िरवल बागी विधायकों/गुट पर कोई फैसला नहीं दे सकते जबकि ऐसा नहीं है। अक्टूबर 1996 में जब शंकर सिंह वाघेला ने उस समय सुरेश मेहता नीत भाजपा सरकार गिराई और भाजपा से अलग होकर राष्ट्रीय जनता पार्टी बनाकर कांग्रेस की मदद से खुद मुख्यमंत्री बने तब गुजरात विधानसभा में अध्यक्ष का पद खाली था और उपाध्यक्ष चंदूभाई डाभी थे जिनके पास अध्यक्ष के सभी अधिकार थे क्योंकि इस विभाजन से करीब महीना भर पहले अध्यक्ष हरिश्चंद्र पटेल की मृत्यु हो गई थी। यह स्थापित वैधानिक परंपरा है कि विधानसभा अध्यक्ष की गैरमौजूदगी में विस उपाध्यक्ष में ही सदन की अध्यक्षता के अधिकार निहित होते हैं। इसलिये नये गुट की मान्यता से लेकर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव तक सब कुछ सदन में ही तय होना है। दूसरे बागी खेमे के विधायकों के हस्ताक्षरयुक्त पत्र की पड़ताल भी विस उपाध्यक्ष ही करेंगे कि कहीं संबद्ध विधायकों से जबरन दस्तखत तो नहीं कराए गये हैं। वे चाहें तो एक-एक विधायक को अलग-अलग अकेले बुलाकर यह सत्यापन करने की कवायद कर सकते हैं और बागी खेमे के एक-एक विधायक की बात सुनने, समझने व निर्णय देने में कितना समय लगाते हैं, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। “महाशक्ति” यह सब पेचीदगियां समझती है इसलिये अभी तक पर्दे में है।