अजय भट्टाचार्य
भले ही स्वामी प्रसाद मौर्या ने अपने पत्ते अभी नहीं खोले हैं मगर इतना जरुर निश्चित कर दिया है कि वे भाजपा में वापस नहीं जायेंगे। मंत्रीपद से इस्तीफ़ा देने के जो कारण उन्होंने सार्वजानिक किये हैं उनका सन्देश साफ है। मौर्या के त्यागपत्र में दर्ज ”दलितों, पिछड़ों, किसानों बेरोजगार नौजवानों एवं छोटे- लघु एवं मध्यम श्रेणी के व्यापारियों की घोर उपेक्षात्मक रवैये के कारण उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडल से मैं इस्तीफा देता हूं” में उप्र चुनाव की दिशा बदलने का माद्दा है। 2017 में विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए बेहद खास रहे थे। 312 सीटों के साथ जब भाजपा ने सरकार बनाई थी, तब यह कहा गया था कि अति पिछड़ों और दलितों का साथ सफलता का मुख्य कारण रहा। ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्या इसी कड़ी में 2017 में भाजपा के साथ थे। अब वे उसके खिलाफ खड़े हैं। स्वामी प्रसाद मौर्या के साथ जिन तीन विधायकों ने अभी तक इस्तीफा दिया है उनका जातीय गणित भी समझिये। बांदा के तिंदवारी से ब्रजेश प्रजापति कुम्हार, शाहजहांपुर के तिलहर से रौशनलाल लोधी और कानपुर के बिल्हौर से भगवती प्रसाद धोबी जाति से आते हैं। यानी दो अति पिछड़े और एक दलित। इन जातियों की संख्या किसी सीट पर बहुत बड़ी तो नहीं है लेकिन इतनी है कि ये खेल बना या बिगाड़ सकते हैं। यही कारण है कि यूपी की सभी पार्टियां इन्हें पलकों पर बिठाकर रखना चाहती हैं।
2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को 22 % से अधिक वोट मिले थे। 2012 के मुकाबले इसमें 7.5 % की कमी आई थी। लेकिन, वोट प्रतिशत के इस एक चौथाई अंतर ने सीटों की संख्या को तीन-चौथाई से अधिक घटा दिया था। वजह यह थी कि अखिलेश यादव-मुस्लिम के कोर वोट बैंक से आगे बढ़ नहीं पाए थे और भाजपा ने 38 % से अधिक गैर यादव पिछड़ा अति पिछड़ा को जोड़कर सत्ता का अजेय समीकरण खड़ा कर दिया था। इसलिए 2022 की आजमाइश में अखिलेश यादव ने भाजपा के तोड़ के लिए उसके ही फॉर्म्युले को अपनी रणनीति में जोड़ लिया है। उप्र में मौर्य, शाक्य, सैनी बिरादरी के वोटर 8 % से अधिक माने जाते हैं। पूर्वांचल से लेकर पश्चिमी उप्र तक कई सीटों पर इनका प्रभाव है। बसपा में भी स्वामी अति पिछड़े चेहरे के तौर पर प्रभावी थे। भाजपा में शामिल होने के बाद यही कहा गया था कि पार्टी को मौर्य वोटों का ‘ प्रसाद ‘ दिलाने में उनकी अहम भूमिका होगी। भाजपा में आने के बाद भी स्वामी ने अपनी बिरादरी और समर्थकों में पार्टी से अलग अपना समानांतर आधार बनाए रखने की प्रक्रिया लगातार जारी रखी थी। उनके भाजपा छोड़ने से करीब 100 सीटों पर असर पड़ सकता है। अखिलेश यादव ने महान दल के केशव देव मौर्य के तौर पर पहले से एक अति पिछड़ा चेहरा पहले ही अपने साथ ला चुके हैं।
पिछले चुनाव में भाजपा की जीत में ध्रुवीकरण के साथ ही गैर यादव और गैर जाटव वोट बैंक में भाजपा की बड़ी सेंधमारी का बहुत बड़ा योगदान था। इस कारण प्रदेश में पार्टी अपना परचम लहराने में कामयाब हुई थी. गौरतलब है कि प्रदेश की राजनीति में मुलायम सिंह और मायावती इन्हीं अति पिछड़ों के कारण अपनी जड़ें जमाने में कामयाब रहे थे। 2014 के बाद समय बदला और ये लोग भाजपा से जुड़ने लगे. भाजपा ने इस वोटबैंक को अपने साथ करने के लिए कई नेताओं को तोड़ा, कई लोगों से समझौता किया। पार्टी के भीतर मौजूद ऐसे नेताओं को बड़े ओहदे दिए गए। केशव मौर्या को इसी गणित के तहत चुनाव से पहले पार्टी अध्यक्ष बनाया गया था। भगवती प्रसाद सागर, रौशनलाल वर्मा और ब्रजेश प्रजापति तीनों शुरुआती बसपाई रहे हैं। समय बीतने के साथ पार्टी बदल गई। 2017 से पहले भाजपा ने इन्हें अपने पाले में किया, जिससे गैर यादव और गैर जाटव वोटों को खींच सके। अब वहीं काम अखिलेश यादव कर रहे हैं। अखिलेश यादव पहले से ही दलित वोटरों की गोलबन्दी कर रहे हैं। वे समाजवादियों के साथ अम्बेडकरवादियों को भी खड़ा करना चाहते हैं। यादव तो उनके साथ हैं ही, अब बारी गैर यादव वोटरों को जोड़ने की है। ओमप्रकाश राजभर से गठबंधन इसी कड़ी का हिस्सा है। कभी मुलायम सिंह यादव के साथ बड़ी संख्या में अति पिछड़े जुड़े थे. गैर जाटव दलित वोटरों के लिए अखिलेश यादव ने दलित नेताओं को न सिर्फ अपने यहां जगह दी है बल्कि बहुत से नेताओं से गठबंधन भी किया है। अब यह देखना होगा कि आने वाले कल में मौर्या किस पार्टी या गठबंधन से जुड़ते हैं और तदनुसार भाजपा क्या रणनीति बनाती है।
(लेखक देश के जाने माने पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)
