अजय भट्टाचार्य
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के निशाने पर अब पूर्वांचल है। यहाँ भारतीय जनता पार्टी अपने जातिगत समीकरण को बचाने के लिए जूझ रही है। भाजपा के बाद अब सपा के साथ आई ओम प्रकाश राजभर के नेतृत्व वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) अपने समुदाय के मतों का एक बड़ा हिस्सा खींच सकती है। इसी तरह मौर्य-कुशवाहा मतदाताओं का वर्ग 2014 से हर चुनाव में सत्ताधारी पार्टी को मजबूत समर्थन देने के बावजूद उसकी ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिए जाने की शिकायत कर रहा है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कई स्थानों पर उन जातियों के उम्मीदवारों को खड़ा किया है, जिन्हें पार्टी का पारंपरिक समर्थक नहीं समझा जाता। रणनीति यह है कि सपा को मुसलमानों और यादव समर्थकों के अलावा अन्य जातियों का समर्थन हासिल हो सके।
पिछले चुनाव में 54 हजार से अधिक मतों से शिवपुर सीट जीतने वाले उत्तर प्रदेश के मंत्री एवं भाजपा उम्मीदवार अनिल राजभर के सामने सपा ने सुभासपा की ओर से ओम प्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर को खड़ा करके मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है। संदहा गांव में सुभासपा और भाजपा दोनों दलों के झंडे कुछ राजभर परिवारों के घर के ऊपर लहरा रहा है। कोई कोरोना के दौरान उनके परिवार को मुफ्त राशन के गुण गा रहे है तो कोई क्षेत्रीय दल का जिक्र करते हुए‘बिरादरी के नेता’ अरविंद का समर्थन कर रहा है। गाँव में मत हर जगह बंटे हुए है। भाजपा सहयोगी के तौर पर ओम प्रकाश राजभर ने पिछला चुनाव काली चरण राजभर को हराकर जीता था। अब वही कालीचरण कमल पर आसीन हो मैदान में डटे हुए हैं। सपा ने गाजीपुर सदर सीट से जय किशन साहू को भाजपा की संगीता बलवंत के खिलाफ टिकट दिया है। सुभासपा के अलावा ‘अपना दल’ एवं निषाद पार्टी पूर्वांचल में मजबूत हो रही हैं, लेकिन कुछ अन्य पिछड़ा वर्गों को लग रहा है कि उन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। मौर्य समाज की शिकायत है कि उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की अनदेखी की गई है और भाजपा को लगातार समर्थन देने के बावजूद उनके समुदाय पर ध्यान नहीं दिया गया। हाल में बसपा के सुजीत कुमार मौर्य सहित कई स्थानीय प्रभावशाली नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर भाजपा ने नुकसान की भरपाई की कोशिश की है। ऐसा माना जाता है कि भाजपा को ऊंची जातियों और कुर्मी जैसी ओबीसी जातियों का समर्थन प्राप्त है। सपा के पास मुसलमान और यादव समुदाय का समर्थन है। ऐसे में शेष बची जातियां इन चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाएंगी। भाजपा के शासन में ‘बेरोजगारी, महंगाई और आवारा मवेशियों’ का जिक्र तीन मुख्य समस्याओं के रूप में किया जाता है। अब तक का इतिहास यही बताता है कि पूर्वांचल जब भी जिस राजनीतिक दल पर मेहरबान हुआ सूबे की सत्ता की बागडोर उसे ही मिली। सूबे की कुल विधानसभा सीटों में करीब 60 फीसदी सीटें पूर्वांचल में हैं। 162 विधानसभा क्षेत्रों को समेटे पूर्वांचल किसी समय कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। लेकिन 1989 के बाद कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई और बसपा-सपा ने पूर्वांचल में अपनी जीत दर्ज कर सरकार बनाई। 2014 के लोकसभा चुनावों से इस क्षेत्र में भाजपा का दबदबा बढ़ा जिसका नतीजा यह हुआ कि 2017 के विधानसभा चुनाव आते-आते करीब तीन चौथाई विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा को बंपर जीत मिली। यह पूर्वांचल में भाजपा का सबसे श्रेष्ठ प्रदर्शन था। दूसरे शब्दों में कहें तो 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के जादू पर पूर्वांचल ने भरोसा जताया और आजमगढ़ की सीट छोड़कर सभी लोकसभा की सीटें बीजेपी की झोली में गई। यह जादू 2017 में भी बरक़रार रहा। जब समाजवादी पार्टी 17 और बसपा 14 सीटों पर सिमट गई। और सरल शब्दों में कहें तो भाजपा को मिली कुल सीटों में पूर्वांचल में मिली सीटों का हिस्सा एक तिहाई से भी ज्यादा था। जबकि इससे ठीक पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को 102 सीटें मिलीं थीं और सपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता तक पहुंची थी। तब भाजपा को पूर्वांचल में केवल 17 सीटें ही मिली थीं। संयोग देखिये कि 2017 में सपा 17 सीटें ही जीत सकी। इससे पहले 2007 में ब्राह्मण-दलित कार्ड खेलकर बसपा पूर्वांचल की 85 सीटें जीतकर उप्र की सत्ता पर अपने बूते पहुंची थी जो 2012 में सिर्फ 22 सीटों पर ही निपट गई। पूर्वांचल में अंतिम दो चरणों में तीन मार्च और सात मार्च को मतदान होगा।
(लेखक देश के जाने माने पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)
