अजय भट्टाचार्य
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान की दहलीज पर खड़े पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटव, खटीक, भुइयार, पासी, वाल्मीकि जैसी अनुसूचित वर्ग की जातियों में 50 फीसदी से अधिक वोटर जाटवों का माना जाता है। वाल्मीकि, भुइयार जातियों पर भाजपा का कब्जा रहा है। ऐसे में इस बार निशाने पर जाटव हैं। यूं तो ज्यादातर दलित इस बार भी बसपा के साथ हैं, पर उनकी संख्या भी कम नहीं जो भाजपा और गठबंधन की तरफ जा सकते हैं। इन्हें साधने के लिए दोनों ने ही ताकत लगाई है।
इस बार भी काफी दलित अपनी धुन के पक्के हैं, पर एक धड़ा ऐसा भी है, जो विकल्पों पर भी विचार कर रहा है। मुद्दे बदल गए हैं। सुरक्षा, सम्मान जैसी बातें हो रही हैं। ऐसे में यह जरूरी नहीं कि दलित किसी भी दल के बंधन में बंधे रहें। क्षेत्रीय राजनीति के जानकार कहते हैं कि दलित मतदाता जागरूक है। अब वह मुद्दों को परखकर ही वोट करने के मूड में है। पहले चरण में आगरा में चुनाव है। यहां कुल 9 विधानसभा सीटें हैं। पिछले चुनाव में भाजपा ने यहां सभी सीटें जीत ली थीं। भाजपा की यहां प्रचंड लहर चली। बताया जा रहा है कि पिछले चुनाव में ही दलितों ने भाजपा की तरफ रुझान दिखा दिया था। भाजपा उस रुझान को बनाए रखने के लिए हर जतन कर रही है। हालांकि, बसपा यह बात बखूबी जानती है। यही कारण है कि मायावती ने अपने चुनावी समर का आगाज इस बार आगरा से ही किया। सहारनपुर, बुलंदशहर, गाजियाबाद, मेरठ, मुजफ्फरनगर आदि जिलों में भी दलित मतदाताओं की तादाद अच्छी खासी है। राजनीतिक दल दलितों के वोटों में हिस्सेदारी हासिल करने के लिए बेकरार हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चुनावी रण की फिजा इस समय बेहद गर्म है। सभी दलों ने पूरी ताकत झोंक रखी है। भाजपा के सामने जहां अपना पिछला रिकॉर्ड बचाने की चुनौती है, तो विपक्ष की सत्ता परिवर्तन करने की बेताबी साफ नजर आ रही है। यही कारण है कि सपा-रालोद गठबंधन ने चुनावी समर में पूरी ताकत झोंक दी है। अखिलेश और जयंत ने अपना पूरा जोर पश्चिमी उप्र में लगा दिया है, तो भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर गृहमंत्री अमित शाह तक ने यह क्षेत्र मथ डाला है। बसपा और कांग्रेस दोनों चुनावी रण में ताल ठोक रहे हैं। गठबंधन और भाजपा दोनों की ही नजर दलित मतदाताओं पर है। दोनों ही इसमें कुछ हद तक कामयाब भी हो सकते हैं। क्योंकि, दलित वर्ग के थिंक टैंक में चल रहा मंथन भी इस ओेर इशारा कर रहा है।
दलित मतदाता अपनी ताकत को अच्छी तरह समझते हैं। इसी ताकत के दम पर वे बसपा को सत्ता के शिखर तक पहुंचा चुके हैं। वर्ष 1993 में बसपा चुनावी मैदान में पहली बार उतरी। इस चुनाव में उसकी मतों में हिस्सेदारी 11.12 फीसदी की थी। बसपा ने 67 सीटों पर जीत हासिल की थी। 1996 के चुनाव में वोट शेयर बढ़कर 19.64 फीसदी हो गया। 2002 में मतों की हिस्सेदारी 23.06 प्रतिशत तक पहुंची और 98 सीटों पर उसे जीत हासिल हुई। कमाल तो वर्ष 2007 में हुआ, जब बसपा को 30.43 फीसदी वोट मिले और 206 सीटों के साथ उसने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता हासिल की। हालांकि, इसमें बसपा सुप्रीमो मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का कमाल रहा। 2012 के चुनाव में बसपा का ग्राफ गिरा और 25.95 फीसदी मतों की हिस्सेदारी के साथ बसपा 80 सीटों पर सिमटी। 2017 के चुनाव में बसपा का वोट शेयर 22.24 फीसदी ही रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि बसपा 19 सीटों पर सिमट कर रह गई। बावजूद इसके मायावती दलित मतदाताओं के दम पर आज भी मजबूती से न केवल चुनावी रण में ताल ठोक रही हैं, बल्कि फिर से सोशल इंजीनियरिंग के दम पर चुनाव परिणाम बदलने का दावा कर रही हैं। पहले चरण की 34 सीटें ऐसी हैः जहाँ दलित मतदाता असर दिखा सकते हैं। इममें स्याना में 57 हजार, सिकंदराबाद में 70 हजार, अनूपशहर में 70 हजार, शिकारपुर में 62 हजार, खुर्जा में 58 हजार, डिबाई में 30 हजार, बुलंदशहर में 60 हजार, मुरादनगर में 80 हजार, मोदीनगर में 55 हजार, साहिबाबाद में 0 हजार, गाजियाबाद में 75 हजार, सिवालखास में 40 हजार, सरधना में 52 हजार, हस्तिनापुर में 71 हजार, किठौर में 65 हजार, मेरठ कैंट में 65 हजार, मेरठ शहर में 13 हजार, मेरठ दक्षिण में 75 हजार, आगरा एत्मादपुर में 70 हजार, आगरा छावनी में 95 हजार, आगरा दक्षिण में 40 हजार, आगरा उत्तर में 45 हजार, आगरा ग्रामीण में 80 हजार, फतेहपुर सीकरी में 60 हजार, खैरागढ़ में 40 हजार, बाह में 35 हजार, बुढ़ाना में 32 हजार, चरथावल में 55 हजार, खतौली में 47 हजार, मीरापुर में 53 हजार, मुजफ्फरनगर में 22 हजार, पुरकाजी में 75 हजार, शामली में 35 हजार, थानाभवन में 60 हजार और कैराना में 10 हजार दलित मतदाता हैं।
(लेखक देश के जाने माने पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)
