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कांग्रेस से क्यों घबराते हैं केजरीवाल?

विजय यादव
आज
बात करेंगे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच उपजे विवादों पर। क्या लगता है, आम आदमी पार्टी कांग्रेस से इतना डर गई है कि, वह साथ रहना नही चाहती या विपक्षी एकता को तोड़ने अथवा कमजोर करने के लिए किसी का मोहरा बन गई है।
यह सवाल आज के ताजा हालात को देखते हुए हर किसी के मन में पैदा हो सकता है। पटना की बैठक के बाद जिस तरह संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस को छोड़कर अरविंद केजरीवाल सादी में नाराज फूफा की तरह दिल्ली भागे उसके बाद लोगों के जेहन में कई सवाल खड़े हो गए। राज्य सरकार के अधिकार को लेकर सरकार द्वारा जिस अध्यादेश को लागू किया गया क्या कांग्रेस से दूरी बनाने का यही असली कारण है या अंदरखाने बात कुछ और है। अब यहां सिर्फ तर्क ही लगाया जा सकता है, असली मंशा तो अरविंद केजरीवाल ही बता सकते हैं।
दरअसल केजरीवाल वर्तमान राजनीति के सबसे चतुर राजनेता हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि, कांग्रेस पर दबाव बनाने का इससे अच्छा मौका शायद फिर हाथ न लगे, इस नाते अभी प्रेसर बना कर राज्यसभा में अध्यादेश के खिलाफ कांग्रेस से वोटिंग कराया जा सकता है। यह वही केजरीवाल हैं जो जम्मू कश्मीर की धारा 370 को लेकर भाजपा के समर्थन में थे। तब इन्हे नही लगा कि, हमे विपक्ष के साथ रहना चाहिए।
अब जरा इससे हटकर अन्ना हजारे के उस आंदोलन को याद कर लीजिए, जब अरविंद केजरीवाल दिल्ली में तत्कालीन कांग्रेस सरकार को भ्रष्ट साबित करने के लिए भूख हड़ताल पर बैठे थे। इतना ही नहीं कांग्रेस के दिवंगत नेताओं को गलत ठहराने के लिए इनके ऐसे ऐसे बयान सामने आए हैं, जैसे इस मुद्दे पर भाजपा से इनकी स्पर्धा चल रही हो। नेहरू, इंदिरा व राजीव गांधी को जनविरोधी ठहराने में कौन कितना आगे जा सकता है। दरअसल अध्यादेश एक बहाना है, असल में अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के साथ रहना ही नहीं चाहते। क्योंकि उन्हें अच्छी तरह पता है कि, अगर 2024 में विपक्षी एकता के चलते कहीं सत्ता परिवर्तन हुआ तो केंद्र की कमान कांग्रेस के हाथ होगी।
राजनीति में केजरीवाल को अति महत्वाकांक्षी नेता के रूप में जाना और पहचाना जाता है। इसे जानने समझने के लिए थोड़ा सा इनके भूतकाल पर नजर डाल लेना चाहिए। अन्ना आंदोलन से दिल्ली की सत्ता मिलने तक केजरीवाल के साथ जो चेहरे कभी साया तरह रहते थे, वह आज कहां है। इनमे मैं कुछ नामों को याद दिला देना चाहता हूं। अब तक करीब दर्जन भर चेहरे केजरीवाल का साथ छोड़कर दूर जा चुके हैं। इनमे कुछ नाम हैं योगेंद्र यादव, आशीष खेतान, आशुतोष, शांति भूषण, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार, अंजली दमानिया, मयंक गांधी, किरन बेदी, शाजिया इल्मी, विनोद कुमार बिन्नी, अलका लांबा, कुमार विश्वास आदि। हालांकि इन सब में शांति भूषण अब हम सबके बीच नही है, इसी साल जनवरी में उनका निधन हो चुका है। हमने जिन नामों को गिनाया है, यह सभी अरविंद केजरीवाल के सबसे करीबी और विश्वासपात्रों की सूची में शामिल रहे हैं। इसके पीछे की जो एक बात है, वह सबसे ज्यादा गौर करने वाली है।
केजरीवाल के बारे में कहा जाता है कि, वह कभी नहीं चाहते कि, उनकी राह में कोई कांटा बने। उन्हें सत्ता के मार्ग में सिर्फ ऐसा साथी चाहिए जो उन्हे सिर्फ आंख मूंदकर समर्थन ही न दे, बल्कि उनके इशारे पर चले। यही वजह है कि, केजरीवाल के साथ कोई लंबे समय तक टिका नही। दिल्ली के बाद पंजाब में मिली सफलता ने अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा को और भी बढ़ा दिया है, ऐसे में कांग्रेस के साथ इनका चलना मुश्किल है। क्षेत्रीय पार्टियों को दबाने और अपनी बात मनवाने का हुनर रखने वाले केजरीवाल को अच्छी तरह पता है कि, कांग्रेस एक तेज धारा है, जिसके बहाव को रोकना संभव ही नहीं बल्कि मुश्किल है। इस नाते वह अभी से अपना मार्ग बदलकर चलने पर विश्वास रखते हैं। कमोबेश यही हाल बसपा सुप्रीमों मायावती का है। उत्तर प्रदेश में इनका एक बड़ा वोट बैंक वर्तमान में भाजपा के साथ है। पहले से ही जनाधार खो चुकीं मायावती को लगता है कि, विरोधी खेमे के साथ लामबंद होकर वह ताज कॉरिडोर और अंबेडकर पार्क जैसे आरोपों का दंश झेल नहीं पाएंगी। ED, IT और CBI कब दरवाजे पर दस्तक दे दे कुछ कहा नहीं जा सकता।
पटना की सभा में मायावती का नही शामिल होना और अरविंद केजरीवाल का संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस छोड़कर निकल जाना इस बात का साफ संकेत है कि, हैदराबाद वाले ओवैसी परिवार की तरह यह भी भाजपा को हराने से ज्यादा उसके साथ नूरा कुश्ती खेलने में विश्वास रखते हैं। अगले एपिसोड में फिर मिलेंगे एक और नए विषय के साथ।
तब तक के लिए
जय हिन्द

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